उत्तराखंड : कोर्ट में अंग्रेजी नहीं बोल पाया अधिकारी, अब हाई कोर्ट के आदेश पर छिड़ी बहस, आखिर क्यों?

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नैनीताल। नैनीताल हाई कोर्ट के एक हालिया निर्णय ने उत्तराखंड के प्रशासनिक और न्यायिक हलकों में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। हाई कोर्ट की खंडपीठ ने एक सुनवाई के दौरान नैनीताल के ADM प्रशासन विवेक राय की और से “अंग्रेजी न बोल पाने” की स्वीकारोक्ति के बाद यह सवाल उठाया कि क्या ऐसा अधिकारी कार्यकारी पद पर प्रभावी नियंत्रण रखने के योग्य है?

यहां से उठा था मामला 

यह टिप्पणी 18 जुलाई को गौना ग्राम पंचायत की मतदाता सूची से बाहरी राज्यों के लोगों के नाम हटाने की मांग को लेकर दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सामने आई। इस मामले में कोर्ट के निर्देश पर ADM  विवेक राय और SDM मोनिका न्यायालय में पेश हुए थे। जब ADM से कोर्ट ने जानकारी मांगी तो उन्होंने हिंदी में जवाब दिया और स्वीकार किया कि वे अंग्रेज़ी नहीं बोल सकते।

एक नई बहस शुरू 

इसके बाद कोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव को यह जांचने का आदेश दिया कि क्या ऐसे अधिकारी को कार्यकारी दायित्व सौंपना उपयुक्त है। इस टिप्पणी ने प्रदेश भर में एक संवेदनशील बहस को जन्म दे दिया है कि क्या भाषा, विशेष रूप से अंग्रेजी, प्रशासनिक क्षमता का मापदंड हो सकती है?

पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश पीसी पंत निर्णय से असहमत 

पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश पीसी पंत ने इस निर्णय पर असहमति जताते हुए कहा कि हिंदी देश की राजभाषा है और उत्तराखंड की भी आधिकारिक भाषा वही है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 348 का हवाला देते हुए कहा कि यद्यपि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की कार्य भाषा अंग्रेजी है, लेकिन यह राजभाषा हिंदी को दरकिनार करने का आधार नहीं हो सकता।

अनुवादक की सुविधा होनी चाहिए

उनका मानना है कि यदि कोई अधिकारी हिंदी भाषी है तो उसके लिए अनुवादक की सुविधा अदालत में उपलब्ध होनी चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि अपने कार्यकाल में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में खुद अंग्रेज़ी भाषी न्यायमूर्तियों को हिंदी याचिकाकर्ताओं की मदद के लिए मार्गदर्शन दिया है। उन्होंने सुझाव दिया कि राज्य सरकार को इस फैसले को प्रमुख सचिव न्याय और विधि विशेषज्ञों से परामर्श के बाद सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (SLP) के जरिए चुनौती देनी चाहिए।

न्यायालयों की पहली भाषा अंग्रेजी 

दैनिक जागरण में प्रकशित किशोर जोशी की रिपोर्ट के अनुसार हाई कोर्ट के अधिवक्ता कार्तिकेय हरिगुप्ता ने कोर्ट के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि यह पूरी तरह संवैधानिक मुद्दा है। उन्होंने बताया कि संविधान का अनुच्छेद 348 स्पष्ट करता है कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की पहली भाषा अंग्रेजी है।

सरकार के पास ये विकल्प मौजूद

उन्होंने यह भी जोड़ा कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पटना और राजस्थान हाई कोर्ट में हिंदी के उपयोग की अनुमति विशेष प्रक्रियाओं और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद दी गई थी। हरिगुप्ता का कहना है कि यदि उत्तराखंड में भी उच्च न्यायालय में हिंदी को लागू करना है तो राज्यपाल को मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना होगा, जैसा अन्य राज्यों में हुआ।

पहले भी उठ चूका है मुद्दा 

नैनीताल हाई कोर्ट में हिंदी में बहस और याचिका दाखिल करने का मुद्दा पहले भी उठ चुका है। हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने वर्षों पहले यह मांग उठाई थी, जिसके बाद से याचिकाओं के साथ हिंदी अनुवाद भी संलग्न किए जाते हैं।

क्या अंग्रेजी न बोल पाने वाला अधिकारी अक्षम है?

अब बड़ा सवाल यह है कि क्या अंग्रेजी न बोल पाने वाला अधिकारी अक्षम माना जा सकता है? क्या भाषा किसी की प्रशासनिक योग्यता का मापदंड बन सकती है? या यह संविधान के उस मूल भाव का उल्लंघन है जो भाषाई विविधता को सम्मान देता है?

क्या कदम उठाएगी सरकार?

इस संवैधानिक व सामाजिक सवाल ने प्रदेश की राजनीति और प्रशासन को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब देखना है कि राज्य सरकार हाई कोर्ट के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देती है या इसे यथास्थिति बनाए रखती है।

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