सोशल मीडिया की ताकत, पंचायत चुनाव प्रचार में नया हथियार

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उत्तराखंड की पहाड़ियों से लेकर मैदानी इलाकों तक, पंचायत चुनाव की गहमागहमी चरम पर है। नामांकन की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है और अब मुकाबला सीधे-सीधे जनता के बीच में है। एक ओर कुछ ग्राम प्रधान और क्षेत्र पंचायत सदस्य निर्विरोध चुने जा चुके हैं, तो दूसरी ओर अधिकांश सीटों पर घमासान चुनावी जंग जारी है। इस बार एक बात जो खास तौर पर सामने आई है, वह है – सोशल मीडिया की निर्णायक और प्रभावशाली भूमिका।

चौपाल से वर्चुअल चौपाल तक का सफर

एक दौर था जब गांव की चौपाल चुनावी रणनीति का केंद्र होती थी, लेकिन अब मोबाइल की स्क्रीन ही नई चौपाल बन चुकी है। गांव के युवा हों या प्रवासी मतदाता, हर कोई फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी गतिविधियों से जुड़ा है। प्रत्याशी भी इस बदलाव को पहचान चुके हैं और अब वो ‘डिजिटल चौपाल’ में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं।

पोल और प्रचार रणनीति 

पंचायत चुनावों में इस बार सोशल मीडिया पोल ने ज़बरदस्त दस्तक दी है। प्रत्याशी अपने समर्थन में सोशल मीडिया पर पोल करा रहे हैं, और फिर उसके स्क्रीनशॉट या लिंक को गांव-गांव तक पहुंचा रहे हैं। व्हाट्सएप ग्रुप्स में ये पोल खूब वायरल हो रहे हैं। कई बार तो ये पोल वास्तविक जनभावनाओं को दर्शाने के बजाय एक प्रचार उपकरण के रूप में ही सामने आते हैं – जैसे मानो एक भावनात्मक दबाव बनाने की कोशिश। लेकिन, सवाल यह है कि क्या ये पोल जनमत को प्रभावित करते हैं या बस चर्चा का मुद्दा बनते हैं?

रील और वीडियो

आज के दौर में ग्राम प्रधान उम्मीदवार भी खुद को किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं समझते। रील्स, वीडियो मैसेज, डायलॉग और स्लोगन – हर चीज़ को एक ब्रांडिंग टूल के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। खासतौर पर युवा प्रत्याशी इंस्टाग्राम और फेसबुक पर रचनात्मकता के साथ अपनी पहचान गढ़ रहे हैं। कई उम्मीदवारों ने “हम भी बदलेंगे गांव की तकदीर”, “नया चेहरा, नई सोच” जैसे नारों को सोशल मीडिया पर ट्रेंड बना दिया है।

सोशल मीडिया से सीधा संवाद

गांवों से बाहर रहने वाले हजारों प्रवासी मतदाता जो मतदान के दिन गांव नहीं आ सकते, उनके लिए सोशल मीडिया एक सीधा संवाद माध्यम बनकर उभरा है। प्रत्याशी उन्हें वीडियो कॉल, मैसेज या पोस्ट के ज़रिए जोड़ रहे हैं। यह तरीका न केवल जुड़ाव बढ़ा रहा है, बल्कि समर्थन जुटाने में भी मददगार हो रहा है।

सार्थक या सतही?

जहां एक ओर सोशल मीडिया ने प्रचार को आसान और व्यापक बना दिया है, वहीं यह भी सत्य है कि यह सतही और भावनात्मक प्रचार का माध्यम भी बन सकता है। गांव के बुजुर्ग और तकनीक से दूर मतदाता आज भी सीधे संपर्क को प्राथमिकता देते हैं। ऐसे में केवल सोशल मीडिया पर निर्भर रहना कई बार भ्रम पैदा कर सकता है। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर झूठी सूचनाओं, अफवाहों और फर्जी प्रोमोशन्स का खतरा भी बढ़ गया है। ऐसे में चुनाव आयोग और प्रशासन की भूमिका भी ज़रूरी हो जाती है कि वे इस डिजिटल प्रचार पर निगरानी बनाए रखें।

मुख्य प्रचार हथियार

पंचायत चुनावों में सोशल मीडिया की भूमिका अब केवल एक पूरक साधन नहीं रही, बल्कि यह मुख्य प्रचार हथियार बन चुकी है। हर घर में स्मार्टफोन और इंटरनेट की पहुंच ने इसे संभव बनाया है। लेकिन, यह देखना बाकी है कि क्या ये डिजिटल प्रयास वास्तविक वोटों में बदल पाएंगे या नहीं। चुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि रील्स असली बदलाव की वजह बन पाई या नहीं।

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